ये सरसों के फूल, आम के मंजर, कोयल की कूक, सब साज-बाज हैं बसंत के| बसंत ऋतु में "हम" ही "हम" होता है| पुरवैया होती है| मन-प्राण-शरीर को झकझोरती है| प्रकृति में परिवर्तन होता है| ठण्ड जाती है| गर्मी आती है| पर शनै: शनै:| पूरब उत्साह और स्वास्थ्य वर्द्धक दिशा है| पूरब की ओर मुख करके पूजा, भोजन, शयन, प्रस्थान, सब शुभकारी है| मलय पवन की सखी है पुरवैया हवा| वास्तुशास्त्र के अनुसार मकान का मुख पूरब होना अतिउत्तम स्थिति है| इतने सारे सरोकारों के साथ बहती है पुरवैया| इतना ही सरोकार है हमारा पूरब के साथ| इसी कम्पन से उत्पन्न होता है साहित्य! साहित्य समाज को दिशा देता है| पुरवैया हवा की भांति पूरब का साहित्य भी जीवन का साहित्य है| सूरज के साथ दिन की शुरुआत|
यह पूरब का देश है| सूरज यहाँ पर पहले आता है| बड़ी देर तक ठहरता है| उसके पश्चिम में जाकर डूबने के बाद भी हम पूरब वाले ही कहलाते हैं| डूबते सूरज की पूजा करने वाला यह अनोखा देश है| जाता है, वह आएगा, इसी आशा में जिन्दगी कटती है| इसी जीवन में उत्थान-पतन, सुख-दुःख, हास-परिहास, जीवन-मरण, उगना और डूबना है| पुरवैया और पछुआ है| दोनों दो छोर हैं| इसलिये पुरवैया और पछुआ हवा की भिन्न-भिन्न तासीर है| जीवन की सभी द्वैत स्थितियों की तरह| साहित्य का सरोकार इन दोनों तासिरों से है|
बादल से भी आद्रता उधार मांग लेती है पुरवैया| सब मांग-मांग कर ही सब फकीर बनते हैं| भरती है झोली, खाली होती है| पुरवैया का गुण स्पर्श है| साहित्य भी स्पर्श ही करता है| समाज से ही मिलता है साहित्य| समाज को ही अर्पित होता है| प्रीत जगाती पुरवैया हवा की भांति साहित्य विश्व बंधुत्व जगाने का काम करता है| पुरवैया को भी प्रकृति को कुछ देना कुछ लेना होता है| पूरब का साहित्य विश्व समाज को कुछ देने कहने के लिये है| यानी पुरवैया|
यह पूरब का देश है| सूरज यहाँ पर पहले आता है| बड़ी देर तक ठहरता है| उसके पश्चिम में जाकर डूबने के बाद भी हम पूरब वाले ही कहलाते हैं| डूबते सूरज की पूजा करने वाला यह अनोखा देश है| जाता है, वह आएगा, इसी आशा में जिन्दगी कटती है| इसी जीवन में उत्थान-पतन, सुख-दुःख, हास-परिहास, जीवन-मरण, उगना और डूबना है| पुरवैया और पछुआ है| दोनों दो छोर हैं| इसलिये पुरवैया और पछुआ हवा की भिन्न-भिन्न तासीर है| जीवन की सभी द्वैत स्थितियों की तरह| साहित्य का सरोकार इन दोनों तासिरों से है|
बादल से भी आद्रता उधार मांग लेती है पुरवैया| सब मांग-मांग कर ही सब फकीर बनते हैं| भरती है झोली, खाली होती है| पुरवैया का गुण स्पर्श है| साहित्य भी स्पर्श ही करता है| समाज से ही मिलता है साहित्य| समाज को ही अर्पित होता है| प्रीत जगाती पुरवैया हवा की भांति साहित्य विश्व बंधुत्व जगाने का काम करता है| पुरवैया को भी प्रकृति को कुछ देना कुछ लेना होता है| पूरब का साहित्य विश्व समाज को कुछ देने कहने के लिये है| यानी पुरवैया|
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