शनिवार, 30 अप्रैल 2011

अपना गाँव

दूर दूर तक है... खेत हरे हरे
मखबल की मानिंद... हरे भरे
प्यारा है.....सबसे मेरा गाँव

पीपल की मिलती है प्यारी छांव
वृक्ष आम नीम पीपल के लगे है
यहाँ कच्चे - पके से बेर लगे हैं

हरियाली है....मेरा गाँव का गहना
पेड़ पर लगे अमरूदों का क्या कहना

गेंहू की खूब लगी है सुंदर बाली
दूर दूर तक फैली है.. हरियाली
बहती है.. शीतल मंद मंद हवा

ऊपर छाया है नीला नीलगगन
गाँव में सुंदर नदी यहाँ बहती है
इसकी धरती खूब सुकून देती है
नदी मंद मंद बहती है.. निर्झर
कभी इधर .. ..तो कभी उधर

गाँव किसानो का है पावन धाम
पावन पावन है मेरा प्यारा ग्राम
जहाँ लगती है किसानो की चौपाल
गाँव में जैसे ही होता है सायंकाल

स्वच्छ चाँदनी की और है बात
होती है ...जैसे ही शीतल रात
सबको मन को भाता है मेरा गाँव

प्यारा है दिल से मेरा अपना गाँव

शनिवार, 23 अप्रैल 2011

अपनी अलग पहचान बनाने की आदत है हमे !

सबको प्यार देने की आदत है हमे ,
अपनी अलग पहचान बनाने की आदत है हमे !
कितना भी गहरा जख्म दे कोई हमे ,
उतना ही ज्यादा मुस्कुराने की आदत है हमे !!
कभी याद आती है कभी ख्वाब आते हैं हमे ,
मुझे सताने के सलीके उन्हें बेहिसाब आते है उन्हें !

मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

मैं हर माँ के चरणों में शीश झुकाता हूँ.....

किसी की ख़ातिर अल्‍ला होगा, किसी की ख़ातिर राम
लेकिन अपनी ख़ातिर तो है, माँ ही चारों धाम
जब आँख खुली तो ‍मा की गोदी का एक सहारा था
उसका नन्‍हा-सा आँचल मुझको भूमण्‍डल से प्‍यारा था
उसके चेहरे की झलक देख चेहरा फूलों-सा खिलता था
उसके स्‍तन की एक बूंद से मुझको जीवन मिलता था
हाथों से बालों को नोचा, पैरों से खूब प्रहार किया
फिर भी उस माँ ने पुचकारा हमको जी भर के प्‍यार किया
मैं उसका राजा बेटा था वो आँख का तारा कहती थी
मैं बनूँ बुढ़ापे में उसका बस एक सहारा कहती थी
उंगली को पकड़ चलाया था पढ़ने विद्यालय भेजा था
मेरी नादानी को भी निज अन्‍तर में सदा सहेजा था
मेरे सारे प्रश्‍नों का वो फौरन जवाब बन जाती थी
मेरी राहों के काँटे चुन वो ख़ुद ग़ुलाब बन जाती थी
मैं बड़ा हुआ तो कॉलेज से इक रोग प्‍यार का ले आया
जिस दिल में माँ की मूरत थी वो रामकली को दे आया
शादी की, पति से बाप बना, अपने रिश्‍तों में झूल गया
अब करवाचौथ मनाता हूँ माँ की ममता को भूल गया
हम भूल गए उसकी ममता, मेरे जीवन की थाती थी
हम भूल गए अपना जीवन, वो अमृत वाली छाती थी
हम भूल गए वो ख़ुद भूखी रह करके हमें खिलाती थी
हमको सूखा बिस्‍तर देकर ख़ुद गीले में सो जाती थी
हम भूल गए उसने ही होठों को भाषा सिखलाई थी
मेरी नींदों के लिए रात भर उसने लोरी गाई थी
हम भूल गए हर ग़लती पर उसने डाँटा-समझाया था
बच जाऊँ बुरी नज़र से काला टीका सदा लगाया था
हम बड़े हुए तो ममता वाले सारे बन्‍धन तोड़ आए
बंगले में कुत्ते पाल लिए माँ को वृद्धाश्रम छोड़ आए
उसके सपनों का महल गिरा कर कंकर-कंकर बीन लिए
ख़ुदग़र्ज़ी में उसके सुहाग के आभूषण तक छीन लिए
हम माँ को घर के बँटवारे की अभिलाषा तक ले आए
उसको पावन मंदिर से गाली की भाषा तक ले आए
माँ की ममता को देख मौत भी आगे से हट जाती है
गर माँ अपमानित होती, धरती की छाती फट जाती है
घर को पूरा जीवन देकर बेचारी माँ क्‍या पाती है
रूखा-सूखा खा लेती है, पानी पीकर सो जाती है
जो माँ जैसी देवी घर के मंदिर में नहीं रख सकते हैं
वो लाखों पुण्‍य भले कर लें इंसान नहीं बन सकते हैं
माँ जिसको भी जल दे दे वो पौधा संदल बन जाता है
माँ के चरणों को छूकर पानी गंगाजल बन जाता है
माँ के आँचल ने युगों-युगों से भगवानों को पाला है
माँ के चरणों में जन्नत है गिरिजाघर और शिवाला है
हिमगिरि जैसी ऊँचाई है, सागर जैसी गहराई है
दुनिया में जितनी ख़ुशबू है माँ के आँचल से आई है
माँ कबिरा की साखी जैसी, माँ तुलसी की चौपाई है
मीराबाई की पदावली ख़ुसरो की अमर रुबाई है
माँ आंगन की तुलसी जैसी पावन बरगद की छाया है
माँ वेद ऋचाओं की गरिमा, माँ महाकाव्‍य की काया है
माँ मानसरोवर ममता का, माँ गोमुख की ऊँचाई है
माँ परिवारों का संगम है, माँ रिश्‍तों की गहराई है
माँ हरी दूब है धरती की, माँ केसर वाली क्‍यारी है
माँ की उपमा केवल माँ है, माँ हर घर की फुलवारी है
सातों सुर नर्तन करते जब कोई माँ लोरी गाती है
माँ जिस रोटी को छू लेती है वो प्रसाद बन जाती है
माँ हँसती है तो धरती का ज़र्रा-ज़र्रा मुस्‍काता है
देखो तो दूर क्षितिज अंबर धरती को शीश झुकाता है
माना मेरे घर की दीवारों में चन्‍दा-सी मूरत है
पर मेरे मन के मंदिर में बस केवल माँ की मूरत है
माँ सरस्‍वती, लक्ष्‍मी, दुर्गा, अनुसूया, मरियम, सीता है
माँ पावनता में रामचरितमानस् है भगवद्गीता है
मा तेरी हर बात मुझे वरदान से बढ़कर लगती है
हे माँ तेरी सूरत मुझको भगवान से बढ़कर लगती है
सारे तीरथ के पुण्‍य जहाँ, मैं उन चरणों में लेटा हूँ
जिनके कोई सन्‍तान नहीं, मैं उन माँओं का बेटा हूँ
हर घर में माँ की पूजा हो ऐसा संकल्‍प उठाता हूँ
मैं दुनिया की हर माँ के चरणों में ये शीश झुकाता हूँ
श्याम विश्वकर्मा

सोमवार, 18 अप्रैल 2011

मैंने देखा था कल शाम.....

मैंने देखा था कल शाम तुझे फिर से रोते हुए...
अपने गहरे ज़ख्मों को फिर नमक के पानी से धोते हुए...!

क्या लगता है के मैं कुछ नहीं जनता...
तेरे मासूम चेहरे पर बनी इन लकीरों को नहीं पहचानता...!

तेरी छाती से उतरे दूध को पिया है मैंने...
हर पल जब तू मरी वो हर पल तेरे साथ जिया है मैंने...!

यहाँ खड़ा हूँ इस चलते तूफ़ान के बीच...
तुने ही तो कहा था की इन पौधों को लहू से सींच...!

फिर भी पता नहीं के क्या मैं कर पाउँगा...
बस येही मालूम है की बेटा हूँ तेरा और यहीं मर जाऊंगा...!

मेरी भी तो माँ ने ही भेजा है मुझको तिलक लगा कर...
जाते हुए को बोली थी वापिस मत आना यहाँ पीठ दिखाकर...!

हाँ मैं देख रहा हूँ की वो बढे आ रहे हैं...
उनकी रफ़्तार ही ऐसी है की मेरे नाते सब बिछड़ते जा रहे हैं...!

अच्छा माँ देख मुझे अब फ़र्ज़ बुला रहा है...
खून का यह कैसा दौरा है उबलता ही जा रहा है...!

तेरी आँखों के आंसू तो शायद मैं न पोंछ सकूँगा...
लेकिन आज अगर मैं नहीं कट्टा तो अपने घर भी तो नहीं जा सकूँगा...!

माँ बस मेरी माँ से कहना की तेरा बेटा लौटा नहीं...
अब भी सरहद पे ही पड़ा है बुलाती हूँ तो बोलता ही नहीं...!

कहना की वो बिलकुल नहीं डरा और मुझे छोड़ कर नहीं भागा...
लड़ लड़ के मरा है हमारा बेटा फौजी था न के अभागा...!

हाँ लोगो तुम भी मुझे शहीद ही बुलाना...
इस माँ की खातिर मंज़ूर है पड़े जो हर इक माँ को रुलाना...!

रविवार, 17 अप्रैल 2011

थोड़ी सी हंसी हो जाये......

काम वाली बाई

एक दिन अचानक
काम पर नहीं आई
तो पत्नी ने फोन पर डांट लगाईं
अगर तुझे आज नहीं आना था
तो पहले बताना था

वह बोली -
मैंने तो परसों ही
फेसबुक पर लिख दिया था क़ि
एक सप्ताह के लिए गोवा जा रही हूँ
पहले अपडेट रहो
फिर भी पता न चले तो कहो

पत्नी बोली =
तो तू फेसबुक पर भी है
उसने जवाब दिया -
मै तो बहुत पहले से फेसबुक पर हूँ
साहब मेरे फ्रेंड हैं !
बिलकुल नहीं झिझकते हैं
मेरे प्रत्येक अपडेट पर
बिंदास कमेन्ट लिखते हैं
मेरे इस अपडेट पर
उन्होंने कमेन्ट लिखा
हैप्पी जर्नी, टेक केयर,
आई मिस यू, जल्दी आना
मुझे नहीं भाएगा पत्नी के हाथ का खाना

इतना सुनते ही मुसीबत बढ़ गयी
पत्नी ने फोन बंद किया
और मेरी छाती पर चढ़ गयी
गब्बर सिंह के अंदाज़ में बोली -
तेरा क्या होगा रे कालिया !

मैंने कहा -देवी !
मैंने तेरे साथ फेरे खाए हैं

वह बोली -
तो अब मेरे हाथ का खाना भी खा !

अचानक दोबारा फोन करके
पत्नी ने काम वाली बाई से
पूछा, घबराये-घबराए
तेरे पास गोवा जाने के लिए
पैसे कहाँ से आये ?

वह बोली- सक्सेना जी के साथ
एलटीसी पर आई हूँ
पिछले साल वर्माजी के साथ
उनकी कामवाली बाई गयी थी
तब मै नई-नई थी
जब मैंने रोते हुए
उन्हें अपनी जलन का कारण बताया
तब उन्होंने ही समझाया
क़ि वर्माजी की कामवाली बाई के
भाग्य से बिलकुल नहीं जलना
अगले साल दिसम्बर में
मैडम जब मायके जायगी
तब तू मेरे साथ चलना !

पहले लोग कैशबुक खोलते थे
आजकल फेसबुक खोलते हैं
हर कोई फेसबुक में बिजी है
कैशबुक खोलने के लिए कमाना पड़ता है
इसलिए फेसबुक ईजी है

आदमी कंप्यूटर के सामने बैठकर
रात-रातभर जागता है
बिंदास बातें करने के लिए
पराई औरतों के पीछे भागता है
लेकिन इस प्रकरण से
मेरी समझ में यह बात आई है

क़ि जिसे वह बिंदास मॉडल समझ रहा है
वह तो किसी की कामवाली बाई है
जिसने कन्फ्यूज़ करने के लिए
किसी जवान सुन्दर लड़की की फोटो लगाईं है
सारा का सारा मामला लुक पर है
और अब तो मेरा कुत्ता भी फेसबुक पर है


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एक रात एक घर में चोर घुस आया. खटपट सुनकर मालिक की आंख खुल गई.

मालिक – कौन है ?

चोर – म्याऊं.

मालिक – कौन है ?

चोर – म्याऊं.

मालिक – कौन है ?

चोर – अबे साले बिल्ली हूं बिल्ली।

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शनिवार, 16 अप्रैल 2011

न रो सको तो चुप रहो .........


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न रो सको तो चुप रहो
यूँ हंसने से आंसुओं का अपमान होता है
उसके हौसले को
नज़रअंदाज न करो
उसकी जब्त स्थिति में मौन साथ दो
स्थितियों को हल्का न बनाओ !
कौन जाने किस रेगिस्तान में
वह प्यास बुझा जाये
और जीने का सबब बन जाये ...
Shyam

बुधवार, 13 अप्रैल 2011

पुरवैया पवन.....


ये सरसों के फूल, आम के मंजर, कोयल की कूक, सब साज-बाज हैं बसंत के| बसंत ऋतु में "हम" ही "हम" होता है| पुरवैया होती है| मन-प्राण-शरीर को झकझोरती है| प्रकृति में परिवर्तन होता है| ठण्ड जाती है| गर्मी आती है| पर शनै: शनै:| पूरब उत्साह और स्वास्थ्य वर्द्धक दिशा है| पूरब की ओर मुख करके पूजा, भोजन, शयन, प्रस्थान, सब शुभकारी है| मलय पवन की सखी है पुरवैया हवा| वास्तुशास्त्र के अनुसार मकान का मुख पूरब होना अतिउत्तम स्थिति है| इतने सारे सरोकारों के साथ बहती है पुरवैया| इतना ही सरोकार है हमारा पूरब के साथ| इसी कम्पन से उत्पन्न होता है साहित्य! साहित्य समाज को दिशा देता है| पुरवैया हवा की भांति पूरब का साहित्य भी जीवन का साहित्य है| सूरज के साथ दिन की शुरुआत|

यह पूरब का देश है| सूरज यहाँ पर पहले आता है| बड़ी देर तक ठहरता है| उसके पश्चिम में जाकर डूबने के बाद भी हम पूरब वाले ही कहलाते हैं| डूबते सूरज की पूजा करने वाला यह अनोखा देश है| जाता है, वह आएगा, इसी आशा में जिन्दगी कटती है| इसी जीवन में उत्थान-पतन, सुख-दुःख, हास-परिहास, जीवन-मरण, उगना और डूबना है| पुरवैया और पछुआ है| दोनों दो छोर हैं| इसलिये पुरवैया और पछुआ हवा की भिन्न-भिन्न तासीर है| जीवन की सभी द्वैत स्थितियों की तरह| साहित्य का सरोकार इन दोनों तासिरों से है|

बादल से भी आद्रता उधार मांग लेती है पुरवैया| सब मांग-मांग कर ही सब फकीर बनते हैं| भरती है झोली, खाली होती है| पुरवैया का गुण स्पर्श है| साहित्य भी स्पर्श ही करता है| समाज से ही मिलता है साहित्य| समाज को ही अर्पित होता है| प्रीत जगाती पुरवैया हवा की भांति साहित्य विश्व बंधुत्व जगाने का काम करता है| पुरवैया को भी प्रकृति को कुछ देना कुछ लेना होता है| पूरब का साहित्य विश्व समाज को कुछ देने कहने के लिये है| यानी पुरवैया|

सोमवार, 11 अप्रैल 2011

अपना घर पुराना याद आता है।


जब कभी गुजरा जमाना याद आता है,
बना मिटटी का अपना घर पुराना याद आता है।
वो पापा से चवन्नी रोज मिलती जेब खरचे को,
वो अम्मा से मिला एक आध-आना याद आता है।
वो छोटे भाई का लडना,वो जीजी से मिली झिङकी,
शाम को फिर भूल जाना याद आता है।
वो घर के सामने की अधखुली खिङकी अभी भी है,
वहाँ पर छिप कर किसी का मुस्कुराना याद आता है।
वो उसका रोज मिलना,न मिलना फिर कभी कहना
जरा सी बात पर हँसना हँसाना याद आता
Shyam Vishwakarma

रविवार, 10 अप्रैल 2011

तेरी यादों में..........

आँखों में आंसूं भरे है तेरी यादों में

हलक से पानी न उतरा तेरी यादों में

हर आहट तेरे आने का आस जगाये

भरी महफ़िल से हम उठकर चले आये

तेरी यादों में

दिल का दर्द नासूर बन गया तेरी यादों में

बह रही है आंसूओं की धार तेरी यादों में

टूटा जो नाज़ुक दिल जुड़ न पाया

रग-रग टूटा जाए तेरी यादों में

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

खूनी हस्‍ताक्षर ( गोपालप्रसाद व्यास )


वह खून कहो किस मतलब काजिसमें उबाल का नाम नहीं।
वह खून कहो किस मतलब काआ सके देश के काम नहीं।

वह खून कहो किस मतलब का जिसमें जीवन, न रवानी है!
जो परवश होकर बहता है,वह खून नहीं, पानी है!

उस दिन लोगों ने सही-सहीखून की कीमत पहचानी थी।
जिस दिन सुभाष ने बर्मा मेंमॉंगी उनसे कुरबानी थी।

बोले, "स्वतंत्रता की खातिरबलिदान तुम्हें करना होगा।
तुम बहुत जी चुके जग में,लेकिन आगे मरना होगा।

आज़ादी के चरणें में जो,जयमाल चढ़ाई जाएगी।
वह सुनो, तुम्हारे शीशों केफूलों से गूँथी जाएगी।

आजादी का संग्राम कहींपैसे पर खेला जाता है?
यह शीश कटाने का सौदानंगे सर झेला जाता है"

यूँ कहते-कहते वक्ता कीआंखों में खून उतर आया!
मुख रक्त-वर्ण हो दमक उठादमकी उनकी रक्तिम काया!

आजानु-बाहु ऊँची करके,वे बोले, "रक्त मुझे देना।
इसके बदले भारत कीआज़ादी तुम मुझसे लेना।"

हो गई सभा में उथल-पुथल,सीने में दिल न समाते थे।
स्वर इनकलाब के नारों केकोसों तक छाए जाते थे।

“हम देंगे-देंगे खून”शब्द बस यही सुनाई देते थे।
रण में जाने को युवक खड़ेतैयार दिखाई देते थे।

बोले सुभाष, "इस तरह नहीं,बातों से मतलब सरता है।
लो, यह कागज़, है कौन यहॉंआकर हस्ताक्षर करता है?

इसको भरनेवाले जन कोसर्वस्व-समर्पण काना है।
अपना तन-मन-धन-जन-जीवनमाता को अर्पण करना है।

पर यह साधारण पत्र नहीं,आज़ादी का परवाना है।
इस पर तुमको अपने तन काकुछ उज्जवल रक्त गिराना है!

वह आगे आए जिसके तन मेंखून भारतीय बहता हो।
वह आगे आए जो अपने कोहिंदुस्तानी कहता हो!

वह आगे आए, जो इस परखूनी हस्ताक्षर करता हो!
मैं कफ़न बढ़ाता हूँ, आएजो इसको हँसकर लेता हो!"

सारी जनता हुंकार उठी-हम आते हैं, हम आते हैं!
माता के चरणों में यह लो,हम अपना रक्त चढाते हैं!

साहस से बढ़े युबक उस दिन,देखा, बढ़ते ही आते थे!
चाकू-छुरी कटारियों से,वे अपना रक्त गिराते थे!

फिर उस रक्त की स्याही में,वे अपनी कलम डुबाते थे!
आज़ादी के परवाने परहस्ताक्षर करते जाते थे!

उस दिन तारों ने देखा थाहिंदुस्तानी विश्वास नया।
जब लिक्खा महा रणवीरों ने ख़ूँ से अपना इतिहास नया।

गोपालप्रसाद व्यास


गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

दिल की हर धड़कन है तनहा


आज तो है रात तनहा, आज है यह दिन भी तनहा
मेरी हर आवाज़ तनहा, क्यों मेरे हैं जज़्बात तनहा
घर की हर दीवार तनहा, दिल की हर मुराद भी तनहा
दीए की लौ भी तनहा, पल-पल जलती हूं मैं तनहा
मेरी खामोशी भी तनहा, कैसे कहूं जुदाई भी तनहा
कल्पना भी आज तनहा, वास्तविकता भी मेरी है तनहा
बिन सपनों के हर पल तनहा, आज मेरे अश्क भी तनहा
सांसों की डोर भी तनहा, दिल की हर धड़कन भी तनहा
आज चारों ओर है तनहा, तुम भी तनहा हम भी तनहा
तेरे बिन ज़िंदगी है तनहा और मेरी तन्हाई भी तनहा।

बुधवार, 6 अप्रैल 2011

और 'तुम' से 'आप' हो गए।


तुम भी जल थे
हम भी जल थे
इतने घुले-मिले थे
कि एक दूसरे से
जलते न थे।

न तुम खल थे
न हम खल थे
इतने खुले-खुले थे
कि एक दूसरे को
खलते न थे।

अचानक हम तुम्हें खलने लगे,
तो तुम हमसे जलने लगे।
तुम जल से भाप हो गए
और 'तुम' से 'आप' हो गए।

चुपके से..

आधी बात कही थी तुमने

और आधी मैने भी जोड़ी

तब जाकर बनी तस्वीर

सच्ची-झूठी थोड़ी-थोड़ी

नटखट सी बातों के पीछे

दुनिया भर का प्यार छुपा

मुस्काती आँखो ने भी

जाने कितने स्वप्न दिखा

लूटा था भोला-सा बचपन

और मिला जब

पहला-पहला खत तुम्हारा

तुड़ा-मुड़ा, कुछ भीगा-भागा

भोर के स्वप्न सा

आधा सोया, आधा जागा

कैसे तुमने ओ लुटेरे

दिल को चुराया चुपके से

न दस्तक न आहट ही

दिल में मचाया शोर

चुपके से..

रविवार, 3 अप्रैल 2011

सुना है चांद पर भी घर बनाने की तमन्ना है

कभी सागर की गहराई में जाने की तमन्ना है
कभी आकाश के तारों को पाने की तमन्ना है
अभी वो सीख ना पाया ज़मीं पे चैन से रहना
सुना है चांद पर भी घर बनाने की तमन्ना है

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