रविवार, 7 अप्रैल 2013

भूली बिसरी यादें.......

चलो गाँव के आम की छाँव में बैठें......
भूली बिसरी यादों को ताज़ा कर बैठें.......
बचपन के खेल निराले याद कर बैठे.......
आज फिर उस खेल को खेलने बैठे.......


चलो  कही दूर चले जाते है.....
ये शहर और ये दुनियां  को छोड़ जाते है......
अपना पन  अब  दीखता ही कहा  है......
फिर से माँ की गोदी में सो जाते है.....


क्यूँ जी चाहता है की बचपन में लौट जाऊ......
क्यूँ जी चाहता है माँ का अंचल पकड कर रोऊँ......
अब तो फुर्सत ही नहीं मिलता दो पल चैन से बैठने को....
बस अब तो भाग दौड़ के दो पल की रोटी को कैसे जुटाऊं........

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