शनिवार, 18 मार्च 2023
आँखों से बोलो…
शब्दों को अधरों पर रख कर
मन का भेद ना खोलो…
शब्दों को अधरों पर रख कर
मन का भेद ना खोलो…
मैं आँखों से सुन सकता हूँ
तुम आँखों से बोलो…
गुरुवार, 2 फ़रवरी 2023
शालिग्राम...
ये पत्थर 6 करोड़ साल पुराने है ।
हो सकता है ये पत्थर 6 करोड़ साल से अभिशप्त हो और मुक्ति के लिए तपस्या कर रहे हो ।
मुक्ति भी मिली तो नेपाल के गंडक नदी से मुक्त हुए और ईश्वर की कृपा हुई तो ये पत्थर स्वयं भगवान हो गए।
मेरा ईश्वर में अतिविश्वास है, मैं घोर आस्तिक हूँ मुझे पता है कि कण-कण में भगवान है, हमारे अगल-बगल हर जगह विद्यमान है ।
सब कुछ वही कर और करा रहे है । हम सभी तो कठपुतली मात्र हैं ।
अब देखिए अयोध्या जी में उत्सव का माहौल है क्योंकि राम लला वर्षों बाद अपने जन्मस्थान पर जा रहे है तो ऐसे शुभ कार्य में उनके ससुराल वाले कैसे पीछे रहते ।
नेपाल की गंडकी नदी से वर्षो पुराने शालिग्राम बाहर निकले है।
मानो ये पत्थर भक्ति में 6 करोड़ साल से डूबे हुए थे ।
प्रभु के कहने से बाहर आए।
अब तय किया गया कि इनसे राम मंदिर के गर्भगृह के लिए सीताराम की मूर्ति बनाई जाएगी ।
प्रभु की लीला देखिए ।
वर्षो से तपस्या में लीन शालिग्राम को आशीर्वाद में श्रीराम होना मिला है, कहते है न कि कण कण में राम है तो शालिग्राम के कण से राम है ।
जब नेपाल से शालिग्राम ने राम होने की यात्रा शुरू की, तो रामभक्तों का जमावड़ा सड़क किनारे लगने लगा और देखने लगी कि "किस भाग्यवान पत्थर के हिस्से में राम होना लिखा है" और लंबी प्रतीक्षा के बाद शालिग्राम पत्थर से श्रीराम होना है । उसके उस स्वरूप को आँख भर देख लेना चाहते है ।
बूढ़े-बुजुर्ग अपनी पीढ़ियों को बतला रहे होंगे, आँखें इन पलों को देखने के लिए व्याकुल थी । न जाने कितनी आँखें इस घड़ी की प्रतीक्षा में सो गई। उन्हें राम को जाते देखना न लिखा था । "देखो, राम जा रहे है और अयोध्या जी की गोद में बैठ जाएंगे"।
युवा इन दृश्यों को समेटकर अपनी सबसे बड़ी विरासत में जोड़ लेंगे और आने वाली पीढ़ियों को बतलाएँगे कि "शालिग्राम को जाते व राम होते, अपनी आँखों से देखा था
मेरे राम यही होकर गुजरे और विश्राम को ठहरे थे, हमने उन्हें स्पर्श भी किया था" । तुम जिन्हें अयोध्या में देख रहे हो वो मेरे श्री राम है । हमने उन्हें राम होते देखा था" । इन आँखों ने जीवन का सबसे सुखद पल संभालकर रखा हुआ है । ताकि तुन्हें अपनी विरासत सौंप सके । राम को देखने लोग घरों से निकल आए, किसी ने आवाज़ तक न लगाई, ना किसी से निमंत्रण दिया ।
बस अपने प्रभु के जाने की आहट से पहचान गए कि उनके प्रभु अयोध्याजी के लिए निकल रहे है और कभी भी उनके द्वार से होकर गुजर सकते है। उनके स्वागत में हजारों की संख्या में श्रदालुओं का हुजूम उमड़ पड़ा। आखिर राम जाते कौन न देखना चाहेगा।
उन शिलाओं ने न जाने कितनी तपस्या की होगी, कि स्वयं प्रभु श्रीराम मिले उनका कद भी अयोध्याजी के मुकाबले रहा होगा । क्योंकि दोनों में राम बसे है, सारे जग में राम है।
उन आँखों को देखना चाहिए, जो पूछती थी । राम कब आएंगे ? देखिए राम जा रहे है । रामभक्त उनका दर्शन लाभ ले रहे है और बार बार मोदी को याद कर रहे हैं जिनके सुशासन में श्री राम लला के मंदिर के पक्ष में फैसला आया ।
बुधवार, 5 अक्टूबर 2022
ये नींद भी ना...
ना दावा काम करती है...
ना दारू काम करती है...
ये नींद भी ना...
मुझे सोने नही देती है...
रविवार, 2 अक्टूबर 2022
शुक्रवार, 23 सितंबर 2022
मैं एक पिता हूँ...
तुम और मैं पति पत्नी थे
तुम माँ बन गई , मैं पिता रह गया ।
तुमने घर सम्भाला , मैंने कमाई लेकिन
तुम " माँ के हाथ का खाना " बन गई ,
मैं कमाने वाला पिता रह गया ।
बच्चों को चोट लगी और
तुमने गले लगाया , मैंने समझाया
तुम ममतामयी बन गई , मैं पिता रह गया ।
बच्चों ने गलतियां की,
तुम पक्ष ले कर " understanding Mom " बन गईं और
मैं " पापा नहीं समझते " वाला पिता रह गया ।
" पापा नाराज होंगे " कह कर तुम बच्चों की
best friend बन गईं और
मैं गुस्सा करने वाला पिता रह गया ।
तुम्हारे आंसू में मां का प्यार और
मेरे छुपे हुए आंसूओं मे मैं निष्ठुर पिता रह गया ।
तुम चण्द्रमा की तरह शीतल बनतीं गईं और
पता नहीं कब मैं सूर्य की अग्नि सा पिता रह गया ।
तुम धरती माँ , भारत मां और मदर नेचर बनतीं गईं और
मैं जीवन को प्रारंभ करने का दायित्व लिए सिर्फ
एक पिता रह गया ।
मंगलवार, 20 सितंबर 2022
चोटी (शिखा)
जब मैं छोटा था तो पापा हर छह महीने-साल भर में मेरा मुंडन करवा देते थे
और, कहते थे कि.... मुंडन करवाने से बाल अच्छा होता है.
लेकिन, मैंने एक बार गौर की थी कि मुंडन करवाते समय वे मेरी चोटी जरूर रखवाते थे...!
हालांकि, मैंने एक दो बार चोटी के लिए थोड़ी न-नुकुर भी की लेकिन पापा ने डपट कर चुप करवा दिया... कि, हिन्दू लोग चोटी रखते हैं....
इसीलिए, चुपचाप चोटी रखो.
उसके बाद मैंने कुछ नहीं बोला और चोटी रख ली.
लेकिन, सच कहूँ तो मुझे उस समय कोई खुशी नहीं हुई कि मैं चोटी रख रहा हूँ.
खैर, ये बात मेरे मन में हमेशा ही रही और मैं अपने इस सवाल का जबाब तलाशता रहा...
और, मुझे लगता है कि ये सिर्फ मेरा ही सवाल नहीं होगा बल्कि मेरे जैसे हजारों लाखों मित्रो की ये उत्सुकता होगी कि मुंडन के बाद आखिर हम चोटी क्यों रखते हैं ???
और, आखिर.... हमारे हिन्दू सनातन धर्म में ""सर पर शिखा अथवा चोटी"" रखने को.... इतना अधिक महत्व क्यों दिया गया है...?????
क्योंकि, हम में से लगभग हर लोग इस बात से अवगत हैं कि..... हमारे हिंदू सनातन धर्म में शिखा के बिना कोई भी धार्मिक कार्य पूर्ण नहीं होता...!
यहाँ तक कि..... हमारे भारतवर्ष में सिर पर शिखा रखने की परंपरा को इतना अधिक महत्वपूर्ण माना गया है कि...
अपने सर पर शिखा रखने को... हम आर्यों की पहचान तक माना गया है...!!
लेकिन, दुर्भाग्य से वामपंथी मनहूस सेक्यूलरों द्वारा .... प्रपंचवश इसे धर्म से जोड़ते हुए ..... इसे दकियानूसी एवं रूढ़िवादी बता दिया गया ...
और... आज स्थिति यह बन चुकी है कि... मेरी तरह अंग्रेजी स्कूलों में पढ़े हिन्दू भी ... सर पर शिखा रखने को एक दकियानूसी परम्परा समझते हैं....
और, सर पर शिखा नहीं रखकर .... खुद को आधुनिक प्रदर्शित करने का प्रयास करते हैं...!!
लेकिन....
आप यह जानकार हैरान रह जायेंगे कि..... ""सर पर शिखा"" रखने का कोई आध्यात्मिक कारण नहीं है.....
बल्कि..... विशुद्ध वैज्ञानिक कारण से ही... हमारे हिन्दू सनातन धर्म में शिखा रखने पर जोर दिया जाता है...!
दरअसल.... हमारे हिन्दू सनातन धर्म में ..... प्रारंभ से ही शिखा को ज्ञान और बुद्धि का प्रतीक माना जाता है....
तथा, हम हिन्दुओं के लिए इसे एक अनिवार्य परंपरा माना जाता है .....
क्योंकि... इससे व्यक्ति की बुद्धि नियंत्रित होती है.
राज की बात यह है कि...
जिस जगह शिखा (चोटी) रखी जाती है... वह स्थान शरीर के अंगों, बुद्धि और मन को नियंत्रित करने का स्थान भी है....
जो मनुष्य के मस्तिष्क को संतुलित रखने का काम भी करती है.
वैज्ञानिक दृष्टि से ... सिर पर शिखा वाले भाग के नीचे सुषुम्ना नाड़ी होती है.... जो कपाल तन्त्र की सबसे अधिक संवेदनशील जगह होती है....
तथा, उस भाग के खुला होने के कारण वातावरण से उष्मा व विद्युत-चुम्बकी य तरंगों का मस्तिष्क से आदान प्रदान करता है।
ऐसे में अगर शिखा ( चोटी) न हो तो....... वातावरण के साथ मस्तिष्क का ताप भी बदलता रहता है....!
इस स्थिति में..... शिखा इस ताप को आसानी से संतुलित कर जाती है.....
और , ऊष्मा की कुचालकता की स्थिति उत्पन्न करके वायुमण्डल से ऊष्मा के स्वतः आदान-प्रदान को रोक देती है... जिससे , शिखा रखने वाले मनुष्य का मस्तिष्क.... बाह्य प्रभाव से अपेक्षाकृत कम प्रभावित होता है....
और, उसका मस्तिष्क संतुलित रहता है...!!
धर्मग्रंथों के अनुसार... शिखा का आकार गाय के पैर के खुर के बराबर होना चाहिए...!
और, इसका वैज्ञानिक पहलू यह है कि.....
हमारे शरीर में सात चक्र होते हैं...
तथा, सिर के बीचों बीच मौजूद सहस्राह चक्र को प्रथम ..... एवं, 'मूलाधार चक्र' जो रीढ़ के निचले हिस्से में होता है, उसे शरीर का आखिरी चक्र माना गया है...!
साथ ही ....सहस्राह चक्र जो सिर पर होता है..... उसका आकार गाय के खुर के बराबर ही माना गया है....!
इसीलिए.... सर पर शिखा रखने से इस सहस्राह चक्र का जागृत करने ......
तथा... शरीर, बुद्धि व मन पर नियंत्रण करने में सहायता मिलती है.
आश्चर्यमिश्रित ख़ुशी की बात यह है कि.....
जो बात आज के आधुनिक वैज्ञानिक लाखों-करोड़ों डॉलर खर्च कर मालूम कर रहे हैं..... जीवविज्ञान की वो गूढ़ रहस्य की बातें ..... हमारे ऋषि-मुनियों ने हजारों-लाखों वर्ष पूर्व ही जान ली थी....!
लेकिन... चूँकि विज्ञान की इतनी गूढ़ बातें ..... एक -एक कर हर किसी को समझा पाना बेहद ही दुष्कर कार्य होता ....
इसीलिए... हमारे पूर्वज ऋषि-मुनियों ने ...... उसे एक परंपरा का रूप दे दिया ..... ताकि, उनके आने वाले वंशज ..... उनके इस ज्ञान से जन्म-जन्मान्तर तक लाभ उठाते रहें.....
जैसे कि.... आज हमलोग उठा रहे हैं...!!
ये सब जानने के बाद अब वास्तव में मुझे अपने सनातन हिन्दू धर्म की परंपरा तथा खुद के हिन्दू होने पर बेहद गर्व होता है.
‼️ जय श्री राम ‼️
गुरुवार, 18 अगस्त 2022
रक्षा बंधन...
एक बहन ने अपनी भाभी को फोन किया और जानना चाहा....." भाभी , मैंने जो भैया के लिए राखी भेजी थी , मिल गयी क्या आप लोगों को " ???
भाभी : " नहीं दीदी, अभी तक तो नहीं मिली "।
.
बहन : " भाभी कल तक देख लीजिए , अगर नहीं मिली तो मैं खुद जरूर आऊंगी राखी लेकर , मेरे रहते भाई की हाथ सुनी नहीं रहनी चाहिए रक्षाबंधन के दिन " ।
.
अगले दिन सुबह ही भाभी ने खुद अपनी ननद को फोन किया : " दीदी आपकी राखी अबतक नहीं मिली , अब क्या करें बताईये " ??
ननद ने फोन रखा , अपने पति को गाड़ी लेकर साथ चलने के लिए राजी किया और चल दी राखी , मिठाई लेकर अपने मायके ।
दो सौ किलोमीटर की दूरी तय कर लगभग पांच घंटे बाद बहन अपने मायके पहुंची ।
फ़िर सबसे पहले उसने भाई को राखी बांधी , उसके बाद घर के बाक़ी सदस्यों से मिली, खूब बातें, हंसी मजाक औऱ लाजवाब व्यंजनों का लंबा दौर चला ।
अगले दिन जब बहन चलने लगी तो उसकी भाभी ने उसकी गाड़ी में खूब सारा सामान रख दिया....कपड़े , फल , मिठाइयां वैगेरह ।
विदा के वक़्त जब वो अपनी माँ के पैर छूने लगी तो माँ ने शिकायत के लहजे में कहा..... " अब ज़रा सा भी मेरा ख्याल नहीं करती तू , थोड़ा जल्दी जल्दी आ जाया कर बेटी , तेरे बिना उदास लगता है मुझें , तेरे भाई की नज़रे भी तुझें ढूँढ़ती रहती हैं अक़्सर "।
बहन बोली- " माँ , मैं समझ सकती हूँ आपकी भावना लेकिन उधर भी तो मेरी एक माँ हैं और इधर भाभी तो हैं आपके पास , फ़िर आप चिंता क्यों करती हैं , जब फुर्सत मिलेगा मैं भाग कर चली आऊंगी आपके पास "।
आँखों में आंसू लेकर माँ बोली- " सचमुच बेटी , तेरे जाने के बाद तेरी भाभी बहुत ख्याल रखती है मेरा, देख तुझे बुलाने के लिए तुझसे झूठ भी बोला, तेरी राखी तो दो दिन पहले ही आ गयी थी, लेकिन उसने पहले ही सबसे कह दिया था कि इसके बारे में कोई भी दीदी को बिलकुल बताना मत, राखी बांधने के बहाने इस बार दीदी को जरुर बुलाना है, वो चार सालों से मायके नहीं आयीं " ।
बहन ने अपनी भाभी को कसकर अपनी बाहों में जकड़ लिया और रोते हुए बोली...." भाभी , मेरी माँ का इतना भी ज़्यादा ख़याल मत रखा करो कि वो मुझें भूल ही जाए " ।
भाभी की आँखे भी डबडबा गईं ।
बहन रास्ते भर गाड़ी में गुमसुम बेहद ख़ामोशी से अपनी मायके की खूबसूरत , सुनहरी , मीठी यादों की झुरमुट में लिपटी हुई बस लगातार यही प्रार्थना किए जा रही थी....." हे ऊपरवाले , ऐसी भाभी हर बहनों को मिले !"
शुक्रवार, 5 अगस्त 2022
भूली बिसरी यादें...
बात उन दिनों की है जब मैं स्कूल में पढ़ता था, उस स्कूली दौर में निब वाले पैन का चलन जोरों पर था...
तब कैमलिन की स्याही प्रायः हर घर में मिल ही जाती थी, कोई कोई टिकिया से स्याही बनाकर भी उपयोग करते थे और बुक स्टाल पर शीशी में स्याही भर कर रखी होती थी 5 पैसा दो और ड्रापर से खुद ही डाल लो ये भी सिस्टम था...
जिन्होंने भी पैन में स्याही डाली होगी वो ड्रॉपर के महत्व से भली भांति परिचित होंगे...
कुछ लोग ड्रापर का उपयोग कान में तेल डालने में भी करते थे...
महीने में दो-तीन बार निब पैन को खोलकर उसे गरम पानी में डालकर उसकी सर्विसिंग भी की जाती थी और लगभग सभी को लगता था की निब को उल्टा कर के लिखने से हैंडराइटिंग बड़ी सुन्दर बनती है...
सामने के जेब मे पेन टांगते थे और कभी कभी स्याही लीक होकर सामने शर्ट नीली कर देती थी जिसे हम लोग सामान्य भाषा मे पेन का पोंक देना कहते थे...
पोंकना अर्थात लूज मोशन...
हर क्लास में एक ऐसा एक्सपर्ट होता था जो पैन ठीक से नहीं चलने पर ब्लेड लेकर निब के बीच वाले हिस्से में बारिकी से कचरा निकालने का दावा करता था...
निब के नीचे के हड्डा को घिस कर परफेक्ट करना भी एक आर्ट था...
हाथ से निब नहीं निकलती थी तो दांतों के उपयोग से भी निब निकालते थे, दांत, जीभ औऱ होंठ भी नीला होकर भगवान महादेव की तरह हलाहल पिये सा दिखाई पड़ता था...
दुकान में नयी निब खरीदने से पहले उसे पैन में लगाकर सेट करना फिर कागज़ में स्याही की कुछ बूंदे छिड़क कर निब उन गिरी हुयी स्याही की बूंदो पर लगाकर निब की स्याही सोखने की क्षमता नापना ही किसी बड़े साइंटिस्ट वाली फीलिंग दे जाता था...
निब पैन कभी ना चले तो हम सभी ने हाथ से झटका देने के चक्कर में आजू बाजू वालों पर स्याही जरूर छिड़कायी होगी...
कुछ बच्चे ऐसे भी होते थे जो पढ़ते लिखते तो कुछ नहीं थे लेकिन घर जाने से पहले उंगलियो में स्याही जरूर लगा लेते थे, बल्कि पैंट पर भी छिड़क लेते थे ताकि घरवालों को देख के लगे कि बच्चा स्कूल में बहुत मेहनत करता है...
रविवार, 22 मई 2022
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