ज़िन्दगी के राह से अक्सर गुजरते हुये मैने अपने अनुभव से बहुत सी बाते समझी है ऐसा मै मानता हुं अब ये कहा तक सही है या गलत है
ये तो सदियो से वक्त पर छोडते आये है, जैसे-जैसे बाते जहन मे आती है मै आपसे कहता रहूंगा क्योकि जब तक जहन से बाते बाहर न आ जाये तब तक एक बेखुदी सी छाई रहती है...............
अक्सर ये सवाल जहन मे आता है मै कौन हूं और कई बाते सोचने लगता है ये जहन, यदि ये मान कर चले कि मेरा नाम " श्याम " है तो ये मेरे शरीर का नाम है और उस शरीर से मै अपने आप को प्रस्तुत करता हूं मगर फ़िर एक बात जहन मे आती है कि शरीर भी अपना नही है ये पंचतत्व से बना है और उस मे विलीन हो जायेगा ऐसा शास्त्र मे लिखा है,,,, यहां पर ये बात आती है कि शरीर से मै प्रस्तुत होता हूं लेकिन शरीर मेरा नही है वो इन तत्वो से बना है और नाम देने से मजहब का पता चलता है इस लिये मै सिर्फ़ शरीर हुं और विचार मेरे है जो कि इस शरीर की संपत्ति है वही मेरी दौलत है क्योकि उसी
विचार के माध्यम से आप मुझे जानते है कि ये व्यक्ति " श्याम " है.
मेरा ये मानना है कि शरीर या किसी अस्तित्व को हम सिर्फ़ विचारो के आधार पर ही समझते है और उन्हे आधारो के माध्यम से नज़रिया तय होता है, यहां पर सोच और नज़र के दायरे पर ही इन्सान का व्यक्तित्व निर्भर करता है..................
अब इन सब बातो को जान लेने के बाद अक्सर मै जब नये-नये लोगो से मिलता हूं तो ये देखने की कोशिश करता हूं कि क्या ये आदमी उस स्तर से सोच सकता है अपने बारे और अपने परिवार के बारे मे या नही क्योकि हर व्यक्ति की सोच मे परिवेश का असर होता है कि वो किस प्रकार के माहौल मे पला-बढा है, और कितना धीरज के साथ सोचता है अक्सर लोग पहले से बनी हुई धारणाओ के आधार पर ही सोचते है अर्थात जरा गंभीरता से नही सोचते आनन-फ़ानन मे जो रास्ता पूर्व धारणा से निर्मित है उसी पर चलते आ रहे है एक परम्परा को ही दोहराते आ रहे है आखिर पहले के हालात और अब के हालात मे काफ़ी फ़र्क है तब की धारणाओ को अब अमल मे लाते रहना कितना सार्थक है यदि तब हालात समाज उतने उन्नतशील नही थे, मगर अब हम उतने उन्नतशील है मगर फ़िर भी हम आज के हालातो के अनुसार नही सोचना चाहते पता नही क्यो ?