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बुधवार, 5 अक्तूबर 2022

ये नींद भी ना...

ना दावा काम करती है...
ना दारू काम करती है...
ये नींद भी ना...
मुझे सोने नही देती है...

रविवार, 2 अक्तूबर 2022

ऐसे दौर से...

ऐसे दौर से गुजर रहे हैं हम...
जहाँ दिल तो दुःखता है, पर
चेहरा हँसता ही रहता है...

शुक्रवार, 23 सितंबर 2022

मैं एक पिता हूँ...


तुम और मैं पति पत्नी थे 
तुम माँ बन गई , मैं पिता रह गया । 
तुमने घर सम्भाला , मैंने कमाई लेकिन 
तुम " माँ के हाथ का खाना " बन गई , 
मैं कमाने वाला पिता रह गया । 

बच्चों को चोट लगी और 
तुमने गले लगाया , मैंने समझाया 
तुम ममतामयी बन गई , मैं पिता रह गया । 
बच्चों ने गलतियां की, 
तुम पक्ष ले कर " understanding Mom " बन गईं और 
मैं " पापा नहीं समझते " वाला पिता रह गया । 

" पापा नाराज होंगे " कह कर तुम बच्चों की 
best friend बन गईं और 
मैं गुस्सा करने वाला पिता रह गया । 
तुम्हारे आंसू में मां का प्यार और 
मेरे छुपे हुए आंसूओं मे मैं निष्ठुर पिता रह गया । 
तुम चण्द्रमा की तरह शीतल बनतीं गईं और 
पता नहीं कब मैं सूर्य की अग्नि सा पिता रह गया । 

तुम धरती माँ , भारत मां और मदर नेचर बनतीं गईं और 
मैं जीवन को प्रारंभ करने का दायित्व लिए सिर्फ 
एक पिता रह गया ।

मंगलवार, 20 सितंबर 2022

चोटी (शिखा)

जब मैं छोटा था तो पापा हर छह महीने-साल भर में मेरा मुंडन करवा देते थे
और, कहते थे कि.... मुंडन करवाने से बाल अच्छा होता है.

लेकिन, मैंने एक बार गौर की थी कि मुंडन करवाते समय वे मेरी चोटी जरूर रखवाते थे...!

हालांकि, मैंने एक दो बार चोटी के लिए थोड़ी न-नुकुर भी की लेकिन पापा ने डपट कर चुप करवा दिया... कि, हिन्दू लोग चोटी रखते हैं....
इसीलिए, चुपचाप चोटी रखो.

उसके बाद मैंने कुछ नहीं बोला और चोटी रख ली.

लेकिन, सच कहूँ तो मुझे उस समय  कोई खुशी नहीं हुई कि मैं चोटी रख रहा हूँ.

खैर, ये बात मेरे मन में हमेशा ही रही और मैं अपने इस सवाल का जबाब तलाशता रहा...

और, मुझे लगता है कि ये सिर्फ मेरा ही सवाल नहीं होगा बल्कि मेरे जैसे हजारों लाखों मित्रो की ये उत्सुकता होगी कि मुंडन के बाद आखिर हम चोटी क्यों रखते हैं ??? 

और, आखिर.... हमारे हिन्दू सनातन धर्म में ""सर पर शिखा अथवा चोटी"" रखने को.... इतना अधिक महत्व क्यों दिया गया है...?????

क्योंकि, हम में से लगभग हर लोग इस बात से अवगत हैं कि..... हमारे हिंदू सनातन धर्म में शिखा के बिना कोई भी धार्मिक कार्य पूर्ण नहीं होता...!

यहाँ तक कि..... हमारे भारतवर्ष में सिर पर शिखा रखने की परंपरा को इतना अधिक महत्वपूर्ण माना गया है कि...
अपने सर पर शिखा रखने को... हम आर्यों की पहचान तक माना गया है...!!

लेकिन, दुर्भाग्य से वामपंथी मनहूस सेक्यूलरों द्वारा .... प्रपंचवश इसे धर्म से  जोड़ते हुए ..... इसे दकियानूसी एवं रूढ़िवादी बता दिया गया ...

और... आज स्थिति यह बन चुकी है कि...   मेरी तरह अंग्रेजी स्कूलों में पढ़े हिन्दू भी ... सर पर शिखा रखने को एक दकियानूसी परम्परा समझते हैं.... 
और, सर पर शिखा नहीं रखकर .... खुद को आधुनिक प्रदर्शित करने का प्रयास करते हैं...!!

लेकिन....

आप यह जानकार हैरान रह जायेंगे कि..... ""सर पर शिखा"" रखने का कोई आध्यात्मिक कारण नहीं है.....

बल्कि..... विशुद्ध वैज्ञानिक कारण से ही... हमारे हिन्दू सनातन धर्म में शिखा रखने पर जोर दिया जाता है...!

दरअसल.... हमारे हिन्दू सनातन धर्म में ..... प्रारंभ से ही शिखा को ज्ञान और बुद्धि का प्रतीक माना जाता है.... 
तथा,  हम हिन्दुओं के लिए इसे एक अनिवार्य परंपरा माना जाता है ..... 
क्योंकि... इससे व्यक्ति की बुद्धि नियंत्रित होती है.

राज की बात यह है कि...
जिस जगह शिखा (चोटी) रखी जाती है... वह स्थान शरीर के अंगों, बुद्धि और मन को नियंत्रित करने का स्थान भी है.... 
जो मनुष्य के  मस्तिष्क को संतुलित रखने का काम भी करती है.

वैज्ञानिक दृष्टि से ... सिर पर शिखा वाले भाग के नीचे सुषुम्ना नाड़ी होती है.... जो कपाल तन्त्र की सबसे अधिक संवेदनशील जगह होती है.... 
तथा,  उस भाग के खुला होने के कारण वातावरण से उष्मा व विद्युत-चुम्बकी य तरंगों का मस्तिष्क से आदान प्रदान करता है।

ऐसे में अगर शिखा ( चोटी) न हो तो....... वातावरण के साथ मस्तिष्क का ताप भी बदलता रहता है....!

इस स्थिति में..... शिखा इस ताप को आसानी से संतुलित कर जाती है..... 
और , ऊष्मा की कुचालकता की स्थिति उत्पन्न करके वायुमण्डल से ऊष्मा के स्वतः आदान-प्रदान को रोक देती है... जिससे , शिखा रखने वाले मनुष्य का मस्तिष्क.... बाह्य प्रभाव से अपेक्षाकृत कम प्रभावित होता है.... 
और, उसका मस्तिष्क संतुलित रहता है...!!

धर्मग्रंथों के अनुसार... शिखा का आकार गाय के पैर के खुर के बराबर होना चाहिए...!

और, इसका वैज्ञानिक पहलू यह है कि.....
हमारे शरीर में सात चक्र होते हैं... 
तथा,  सिर के  बीचों बीच मौजूद सहस्राह चक्र को प्रथम ..... एवं, 'मूलाधार चक्र' जो रीढ़ के निचले हिस्से में होता है, उसे शरीर का आखिरी चक्र माना गया है...!

साथ ही ....सहस्राह चक्र जो सिर पर होता है..... उसका आकार गाय के खुर के बराबर ही माना गया है....!

इसीलिए.... सर पर शिखा रखने से इस सहस्राह चक्र का जागृत करने ......
तथा... शरीर, बुद्धि व मन पर नियंत्रण करने में सहायता मिलती है.

आश्चर्यमिश्रित ख़ुशी की बात यह है कि.....

जो बात आज के आधुनिक वैज्ञानिक लाखों-करोड़ों डॉलर खर्च कर मालूम कर रहे हैं..... जीवविज्ञान की वो गूढ़ रहस्य की बातें ..... हमारे ऋषि-मुनियों ने हजारों-लाखों वर्ष पूर्व ही जान ली थी....!

लेकिन... चूँकि विज्ञान की इतनी गूढ़ बातें ..... एक -एक कर हर किसी को समझा पाना बेहद ही दुष्कर कार्य होता ....

इसीलिए... हमारे पूर्वज ऋषि-मुनियों ने ...... उसे एक परंपरा का रूप दे दिया ..... ताकि, उनके आने वाले वंशज ..... उनके इस ज्ञान से जन्म-जन्मान्तर तक लाभ उठाते रहें..... 
जैसे कि.... आज हमलोग उठा रहे हैं...!!

ये सब जानने के बाद अब वास्तव में मुझे अपने सनातन हिन्दू धर्म की परंपरा तथा खुद के हिन्दू होने पर बेहद गर्व होता है.

‼️ जय श्री राम ‼️

गुरुवार, 18 अगस्त 2022

रक्षा बंधन...


एक बहन ने अपनी भाभी को फोन किया और जानना चाहा....." भाभी , मैंने जो भैया के लिए राखी भेजी थी , मिल गयी क्या आप लोगों को " ???

भाभी : " नहीं दीदी, अभी तक तो नहीं मिली "।
.
बहन : " भाभी कल तक देख लीजिए , अगर नहीं मिली तो मैं खुद जरूर आऊंगी राखी लेकर , मेरे रहते भाई की हाथ सुनी नहीं रहनी चाहिए रक्षाबंधन के दिन " ।
.
अगले दिन सुबह ही भाभी ने खुद अपनी ननद को फोन किया : " दीदी आपकी राखी अबतक नहीं मिली , अब क्या करें बताईये " ??

ननद ने फोन रखा , अपने पति को गाड़ी लेकर साथ चलने के लिए राजी किया और चल दी राखी , मिठाई लेकर अपने मायके ।

दो सौ किलोमीटर की दूरी तय कर लगभग पांच घंटे बाद बहन अपने मायके पहुंची ।

फ़िर सबसे पहले उसने भाई को राखी बांधी , उसके बाद घर के बाक़ी सदस्यों से मिली, खूब बातें, हंसी मजाक औऱ लाजवाब व्यंजनों का लंबा दौर चला ।

अगले दिन जब बहन चलने लगी तो उसकी भाभी ने उसकी गाड़ी में खूब सारा सामान रख दिया....कपड़े , फल , मिठाइयां वैगेरह । 

विदा के वक़्त जब वो अपनी माँ के पैर छूने लगी तो माँ ने शिकायत के लहजे में कहा..... " अब ज़रा सा भी मेरा ख्याल नहीं करती तू , थोड़ा जल्दी जल्दी आ जाया कर बेटी , तेरे बिना उदास लगता है मुझें , तेरे भाई की नज़रे भी तुझें ढूँढ़ती रहती हैं अक़्सर "।

बहन बोली- " माँ , मैं समझ सकती हूँ आपकी भावना लेकिन उधर भी तो मेरी एक माँ हैं और इधर भाभी तो हैं आपके पास , फ़िर आप चिंता क्यों करती हैं , जब फुर्सत मिलेगा मैं भाग कर चली आऊंगी आपके पास "।

आँखों में आंसू लेकर माँ बोली- " सचमुच बेटी , तेरे जाने के बाद तेरी भाभी बहुत ख्याल रखती है मेरा, देख तुझे बुलाने के लिए तुझसे झूठ भी बोला, तेरी राखी तो दो दिन पहले ही आ गयी थी, लेकिन उसने पहले ही सबसे कह दिया था कि इसके बारे में कोई भी दीदी को बिलकुल बताना मत, राखी बांधने के बहाने इस बार दीदी को जरुर बुलाना है, वो चार सालों से मायके नहीं आयीं " ।

बहन ने अपनी भाभी को कसकर अपनी बाहों में जकड़ लिया और रोते हुए बोली...." भाभी , मेरी माँ का इतना भी ज़्यादा ख़याल मत रखा करो कि वो मुझें भूल ही जाए " ।

भाभी की आँखे भी डबडबा गईं ।

बहन रास्ते भर गाड़ी में गुमसुम बेहद ख़ामोशी से अपनी मायके की खूबसूरत , सुनहरी , मीठी यादों की झुरमुट में लिपटी हुई बस लगातार यही प्रार्थना किए जा रही थी....." हे ऊपरवाले , ऐसी भाभी हर बहनों को मिले !"

शुक्रवार, 5 अगस्त 2022

भूली बिसरी यादें...

बात उन दिनों की है जब मैं स्कूल में पढ़ता था, उस स्कूली दौर में निब वाले पैन का चलन जोरों पर था...

तब कैमलिन की स्याही प्रायः हर घर में मिल ही जाती थी, कोई कोई टिकिया से स्याही बनाकर भी उपयोग करते थे और बुक स्टाल पर शीशी में स्याही भर कर रखी होती थी 5 पैसा दो और ड्रापर से खुद ही डाल लो ये भी सिस्टम था...

 जिन्होंने भी पैन में स्याही डाली होगी वो ड्रॉपर के महत्व से  भली भांति परिचित होंगे...

कुछ लोग ड्रापर का उपयोग कान में तेल डालने में भी करते थे...

महीने में दो-तीन बार निब पैन को खोलकर उसे गरम पानी में डालकर उसकी सर्विसिंग भी की जाती थी और  लगभग सभी को लगता था की निब को उल्टा कर के लिखने से हैंडराइटिंग बड़ी सुन्दर बनती है...

सामने के जेब मे पेन टांगते थे और कभी कभी स्याही लीक होकर सामने शर्ट नीली कर देती थी जिसे हम लोग सामान्य भाषा मे पेन का पोंक देना कहते थे...

पोंकना अर्थात लूज मोशन...

हर क्लास में एक ऐसा एक्सपर्ट होता था जो पैन ठीक से नहीं चलने पर ब्लेड लेकर निब के बीच वाले हिस्से में बारिकी से कचरा निकालने का दावा  करता था...

निब के नीचे के हड्डा को घिस कर परफेक्ट करना भी एक आर्ट था...

हाथ से निब नहीं निकलती थी तो दांतों के उपयोग से भी निब निकालते थे, दांत, जीभ औऱ होंठ भी नीला होकर भगवान महादेव की तरह हलाहल पिये सा दिखाई पड़ता था...

दुकान में नयी निब खरीदने से पहले उसे पैन में लगाकर सेट करना फिर कागज़ में स्याही की कुछ बूंदे छिड़क कर निब उन गिरी हुयी स्याही की बूंदो पर लगाकर निब की स्याही सोखने की क्षमता नापना ही किसी बड़े साइंटिस्ट वाली फीलिंग दे जाता था...

निब पैन कभी ना चले तो हम सभी ने हाथ से झटका देने के चक्कर में आजू बाजू वालों पर स्याही जरूर छिड़कायी होगी...

कुछ बच्चे ऐसे भी होते थे जो पढ़ते लिखते तो कुछ नहीं थे लेकिन घर जाने से पहले उंगलियो में स्याही जरूर लगा लेते थे, बल्कि पैंट पर भी छिड़क लेते थे ताकि घरवालों  को देख के लगे कि बच्चा स्कूल में बहुत मेहनत करता है...

रविवार, 22 मई 2022

अच्छा हुआ...

अच्छा हुआ की वक़्त रहते हम तुमसे दूर हो गए
अब हम तेरे तमाशे का हिस्सा नहीं बनेंगे ।

रविवार, 24 अप्रैल 2022

मुझसे मिलने मेरी औकात आई है...

मुझसे मिलने मेरी औकात आई है
मुझसे मिलने मेरी औकात आई है

मकान कच्चा है और बरसात आई है

अब ऐसे कैसे जाने दूं? तुझे ऐ मौत!
बड़ी मुश्किल से तूं मेरे हाथ आई है।


शनिवार, 23 अप्रैल 2022

मैं...

मैं नजर ना आऊं और वह बेचैन हो जाए.....
मैं नजर ना आऊं और वह बेचैन हो जाए.....
काश किसी को मुझसे ऐसा प्यार हो जाए.....

शनिवार, 15 जनवरी 2022

तलाक ! संबंधों का...



               राधिका और नवीन को आज तलाक के कागज मिल गए थे। दोनो साथ ही कोर्ट से बाहर निकले। दोनो के परिजन साथ थे और उनके चेहरे पर विजय और सुकून के निशान साफ झलक रहे थे। चार साल की लंबी लड़ाई के बाद आज फैसला हो गया था।
दस साल हो गए थे शादी को मग़र साथ मे छः साल ही रह पाए थे। 
चार साल तो तलाक की कार्यवाही में लग गए।
राधिका के हाथ मे दहेज के समान की लिस्ट थी जो अभी नवीन के घर से लेना था और नवीन के हाथ मे गहनों की लिस्ट थी जो राधिका से लेने थे।

साथ मे कोर्ट का यह आदेश भी था कि नवीन  दस लाख रुपये की राशि एकमुश्त राधिका को चुकाएगा।

राधिका और नवीन दोनो एक ही टेम्पो में बैठकर नवीन के घर पहुंचे।  दहेज में दिए समान की निशानदेही राधिका को करनी थी।
इसलिए चार वर्ष बाद ससुराल जा रही थी। आखरी बार बस उसके बाद कभी नही आना था उधर।

सभी परिजन अपने अपने घर जा चुके थे। बस तीन प्राणी बचे थे।नवीन, राधिका और राधिका की माता जी।

नवीन घर मे अकेला ही रहता था।  मां-बाप और भाई आज भी गांव में ही रहते हैं। 

राधिका और नवीन का इकलौता बेटा जो अभी सात वर्ष का है कोर्ट के फैसले के अनुसार बालिग होने तक वह राधिका के पास ही रहेगा। नवीन महीने में एक बार उससे मिल सकता है।
घर मे परिवेश करते ही पुरानी यादें ताज़ी हो गई। कितनी मेहनत से सजाया था इसको राधिका ने। एक एक चीज में उसकी जान बसी थी। सब कुछ उसकी आँखों के सामने बना था।एक एक ईंट से  धीरे धीरे बनते घरोंदे को पूरा होते देखा था उसने।
सपनो का घर था उसका। कितनी शिद्दत से नवीन ने उसके सपने को पूरा किया था।
नवीन थकाहारा सा सोफे पर पसर गया। बोला "ले लो जो कुछ भी चाहिए मैं तुझे नही रोकूंगा"
राधिका ने अब गौर से नवीन को देखा। चार साल में कितना बदल गया है। बालों में सफेदी झांकने लगी है। शरीर पहले से आधा रह गया है। चार साल में चेहरे की रौनक गायब हो गई।

वह स्टोर रूम की तरफ बढ़ी जहाँ उसके दहेज का अधिकतर  समान पड़ा था। सामान ओल्ड फैशन का था इसलिए कबाड़ की तरह स्टोर रूम में डाल दिया था। मिला भी कितना था उसको दहेज। प्रेम विवाह था दोनो का। घर वाले तो मजबूरी में साथ हुए थे। 
प्रेम विवाह था तभी तो नजर लग गई किसी की। क्योंकि प्रेमी जोड़ी को हर कोई टूटता हुआ देखना चाहता है। 
बस एक बार पीकर बहक गया था नवीन। हाथ उठा बैठा था उसपर। बस वो गुस्से में मायके चली गई थी। 
फिर चला था लगाने सिखाने का दौर । इधर नवीन के भाई भाभी और उधर राधिका की माँ। नोबत कोर्ट तक जा पहुंची और तलाक हो गया।

न राधिका लोटी और न नवीन लाने गया। 

राधिका की माँ बोली" कहाँ है तेरा सामान? इधर तो नही दिखता। बेच दिया होगा इस शराबी ने ?"

"चुप रहो माँ" 
राधिका को न जाने क्यों नवीन को उसके मुँह पर शराबी कहना अच्छा नही लगा।

फिर स्टोर रूम में पड़े सामान को एक एक कर लिस्ट में मिलाया गया। 
बाकी कमरों से भी लिस्ट का सामान उठा लिया गया।
राधिका ने सिर्फ अपना सामान लिया नवीन के समान को छुवा भी नही।  फिर राधिका ने नवीन को गहनों से भरा बैग पकड़ा दिया। 
नवीन ने बैग वापस राधिका को दे दिया " रखलो, मुझे नही चाहिए काम आएगें तेरे मुसीबत में ।"

गहनों की किम्मत 15 लाख से कम नही थी। 
"क्यूँ, कोर्ट में तो तुम्हरा वकील कितनी दफा गहने-गहने चिल्ला रहा था" 
"कोर्ट की बात कोर्ट में खत्म हो गई, राधिका। वहाँ तो मुझे भी दुनिया का सबसे बुरा जानवर और शराबी साबित किया गया है।"
सुनकर राधिका की माँ ने नाक भों चढ़ाई।

"नही चाहिए। 
वो दस लाख भी नही चाहिए"

 "क्यूँ?" कहकर नवीन सोफे से खड़ा हो गया।

"बस यूँ ही" राधिका ने मुँह फेर लिया।

"इतनी बड़ी जिंदगी पड़ी है कैसे काटोगी? ले जाओ,,, काम आएगें।"

इतना कह कर नवीन ने भी मुंह फेर लिया और दूसरे कमरे में चला गया। शायद आंखों में कुछ उमड़ा होगा जिसे छुपाना भी जरूरी था।

राधिका की माता जी गाड़ी वाले को फोन करने में व्यस्त थी।

राधिका को मौका मिल गया। वो नवीन के पीछे उस कमरे में चली गई।

वो रो रहा था। अजीब सा मुँह बना कर।  जैसे भीतर के सैलाब को दबाने दबाने की जद्दोजहद कर रहा हो। राधिका ने उसे कभी रोते हुए नही देखा था। आज पहली बार देखा न जाने क्यों दिल को कुछ सुकून सा मिला।

मग़र ज्यादा भावुक नही हुई।

सधे अंदाज में बोली "इतनी फिक्र थी तो क्यों दिया तलाक?"

"मैंने नही तलाक तुमने दिया" 

"दस्तखत तो तुमने भी किए"

"माफी नही माँग सकते थे?"

"मौका कब दिया तुम्हारे घर वालों ने। जब भी फोन किया काट दिया।"

"घर भी आ सकते थे"?

"हिम्मत नही थी?"

राधिका की माँ आ गई। वो उसका हाथ पकड़ कर बाहर ले गई। "अब क्यों मुँह लग रही है इसके? अब तो रिश्ता भी खत्म हो गया"

मां-बेटी बाहर बरामदे में सोफे पर बैठकर गाड़ी का इंतजार करने लगी। 
राधिका के भीतर भी कुछ टूट रहा था। दिल बैठा जा रहा था। वो सुन्न सी पड़ती जा रही थी। जिस सोफे पर बैठी थी उसे गौर से देखने लगी। कैसे कैसे बचत कर के उसने और नवीन ने वो सोफा खरीदा था। पूरे शहर में घूमी तब यह पसन्द आया था।"
 
फिर उसकी नजर सामने तुलसी के सूखे पौधे पर गई। कितनी शिद्दत से देखभाल किया करती थी। उसके साथ तुलसी भी घर छोड़ गई।

घबराहट और बढ़ी तो वह फिर से उठ कर भीतर चली गई। माँ ने पीछे से पुकारा मग़र उसने अनसुना कर दिया। नवीन बेड पर उल्टे मुंह पड़ा था। एक बार तो उसे दया आई उस पर। मग़र  वह जानती थी कि अब तो सब कुछ खत्म हो चुका है इसलिए उसे भावुक नही होना है। 

उसने सरसरी नजर से कमरे को देखा। अस्त व्यस्त हो गया है पूरा कमरा। कहीं कंही तो मकड़ी के जाले झूल रहे हैं।

कितनी नफरत थी उसे मकड़ी के जालों से?

फिर उसकी नजर चारों और लगी उन फोटो पर गई जिनमे वो नवीन से लिपट कर मुस्करा रही थी।
कितने सुनहरे दिन थे वो।

इतने में माँ फिर आ गई। हाथ पकड़ कर फिर उसे बाहर ले गई।

बाहर गाड़ी आ गई थी। सामान गाड़ी में डाला जा रहा था। राधिका सुन सी बैठी थी। नवीन गाड़ी की आवाज सुनकर बाहर आ गया। 
अचानक नवीन कान पकड़ कर घुटनो के बल बैठ गया।
बोला--" मत जाओ,,, माफ कर दो"
शायद यही वो शब्द थे जिन्हें सुनने के लिए चार साल से तड़प रही थी। सब्र के सारे बांध एक साथ टूट गए। राधिका ने कोर्ट के फैसले का कागज निकाला और फाड़ दिया । 
और मां कुछ कहती उससे पहले ही लिपट गई नवीन से। साथ मे दोनो बुरी तरह रोते जा रहे थे।
दूर खड़ी राधिका की माँ समझ गई कि 
कोर्ट का आदेश दिलों के सामने कागज से ज्यादा कुछ नही।
काश उनको पहले मिलने दिया होता?

                  अगर माफी मांगने से ही रिश्ते टूटने से बच जाए, तो माफ़ी मांग लेनी चाहिए.😷

बुधवार, 12 जनवरी 2022

रात को...


रात को सर्द मसहरी में जब
आदतन मुझको खोजती होगी
भर के तकिया गुदाज बाँहों में
अश्क धीरे से पोंछती होगी


अपने साये से चौंकने वाली
कैसे शमायें बुझाती होगी
मेरी बाँहों के सिरहाने के बिना
नींद कैसे उसे आती होगी


अश्क धीरे से उसकी आँखों का
सुर्ख गालों पर ढुलकते होंगे
दिल में हर रात मुझसे मिलने के
कितने जज़्बात सुलगते होंगे

मेरी यादों के सहारे उसने
कितने दिन रात गुजारे होंगे
कितनी बेताब तमन्नाओं के
काफिले पार उतारे होंगे

मेरे आने का गुमां होने पर
बारहा रोज वो रोयी होगी
मुझको जब नींद है आती नहीं
तो कैसे मानूं की वो सोयी होगी


By. श्याम विश्वकर्मा
@Dec. 1999 (गवने के बाद)