रात को सर्द मसहरी में जब
आदतन मुझको खोजती होगी
भर के तकिया गुदाज बाँहों में
अश्क धीरे से पोंछती होगी
अपने साये से चौंकने वाली
कैसे शमायें बुझाती होगी
मेरी बाँहों के सिरहाने के बिना
नींद कैसे उसे आती होगी
अश्क धीरे से उसकी आँखों का
सुर्ख गालों पर ढुलकते होंगे
दिल में हर रात मुझसे मिलने के
कितने जज़्बात सुलगते होंगे
मेरे आने का गुमां होने पर
बारहा रोज वो रोयी होगी
मुझको जब नींद है आती नहीं
तो कैसे मानूं की वो सोयी होगी
By. श्याम विश्वकर्मा
@Dec. 1999 (गवने के बाद)
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